साक़ी मुझे शराब की तोहमत नहीं पसंद
मुझ को तिरी निगाह का इल्ज़ाम चाहिए
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अब मिरी हालत-ए-ग़मनाक पे कुढ़ना कैसा
अब भी साज़ों के तार हिलते हैं
मतलब मुआ'मलात का कुछ पा गया हूँ मैं
क्या बात है ऐ जान-ए-सुख़न बात किए जा
वो अबरू याद आते हैं वो मिज़्गाँ याद आते हैं
हम और लोग हैं हम से बहुत ग़ुरूर न कर
मिरे दिल की उदास वादी में
अब दो-आलम से सदा-ए-साज़ आती है मुझे
वही शय मक़सद-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र महसूस होती है
जिस से छुपना चाहता हूँ मैं 'अदम'
ज़िंदगी है इक किराए की ख़ुशी
मय-ख़ाना-ए-हस्ती में अक्सर हम अपना ठिकाना भूल गए