साक़ी तुझे इक थोड़ी सी तकलीफ़ तो होगी
साग़र को ज़रा थाम मैं कुछ सोच रहा हूँ
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और अरमान इक निकल जाता
कश्ती चला रहा है मगर किस अदा के साथ
जा रहा था हरम को मैं लेकिन
ऐ मिरा जाम तोड़ने वाले
गिरते हैं लोग गर्मी-ए-बाज़ार देख कर
वो अहद-ए-जवानी वो ख़राबात का आलम
बस इस क़दर है ख़ुलासा मिरी कहानी का
जुनूँ अब मंज़िलें तय कर रहा है
ख़ैरात सिर्फ़ इतनी मिली है हयात से
उरूस-ए-सुब्ह ने ली है मचल के अंगड़ाई
भूले से कभी ले जो कोई नाम हमारा