वो अहद-ए-जवानी वो ख़राबात का आलम
नग़्मात में डूबी हुई बरसात का आलम
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अब भी साज़ों के तार हिलते हैं
'अदम' रोज़-ए-अजल जब क़िस्मतें तक़्सीम होती थीं
इक हसीं आँख के इशारे पर
एक ना-मक़बूल क़ुर्बानी हूँ मैं
मुस्कुरा कर ख़िताब करते हो
ये कैसी सरगोशी-ए-अज़ल साज़-ए-दिल के पर्दे हिला रही है
छेड़ो तो उस हसीन को छेड़ो जो यार हो
अफ़्साना चाहते थे वो अफ़्साना बन गया
तौबा का तकल्लुफ़ कौन करे हालात की निय्यत ठीक नहीं
मरने वाले तो ख़ैर हैं बेबस
ऐ गदागर ख़ुदा का नाम न ले
शायद मुझे निकाल के पछता रहे हों आप