अब भी साज़ों के तार हिलते हैं
अब भी शाख़ों पे फूल खिलते हैं
तुम ने हम को भुला दिया तो क्या
अब भी राहों में चाँद मिलते हैं
Gulzar
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जो अक्सर बार-वर होने से पहले टूट जाते थे
हसीन नग़्मा-सराओ! बहार के दिन हैं
मायूस हो गई है दुआ भी जबीन भी
दिल की हस्ती बिखर गई होती
बढ़ के तूफ़ान को आग़ोश में ले ले अपनी
जेब ख़ाली है 'अदम' मय क़र्ज़ पर मिलती नहीं
पहले बड़ी रग़बत थी तिरे नाम से मुझ को
तकलीफ़ मिट गई मगर एहसास रह गया
मय-ख़ाना-ए-हस्ती में अक्सर हम अपना ठिकाना भूल गए
दिल को दिल से काम रहेगा
ज़ौक़-ए-परवाज़ अगर रहे ग़ालिब
भूले से कभी ले जो कोई नाम हमारा