जुनूँ अब मंज़िलें तय कर रहा है
ख़िरद रस्ता दिखा कर रह गई है
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मैं मय-कदे की राह से हो कर निकल गया
नाख़ुदा किस लिए परेशाँ है
उरूस-ए-सुब्ह ने ली है मचल के अंगड़ाई
आप इक ज़हमत-ए-नज़र तो करें
मरमरीं मरक़दों पे वक़्त-ए-सहर
किसी जानिब से कोई मह-जबीं आने ही वाला है
हाथ से खो न बैठना उस को
आगही में इक ख़ला मौजूद है
और तो दिल को नहीं है कोई तकलीफ़ 'अदम'
साक़ी तुझे इक थोड़ी सी तकलीफ़ तो होगी
हम को शाहों की अदालत से तवक़्क़ो' तो नहीं
गुलों को खिल के मुरझाना पड़ा है