गुलों को खिल के मुरझाना पड़ा है
तबस्सुम की सज़ा कितनी बड़ी है
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दुआएँ दे के जो दुश्नाम लेते रहते हैं
सो भी जा ऐ दिल-ए-मजरूह बहुत रात गई
मोहतात ओ होशियार तो बे-इंतिहा हूँ मैं
जी चाहता है आज 'अदम' उन को छेड़िए
तीरगी के घने हिजाबों में
बे-सबब क्यूँ तबाह होता है
मय-कदा है यहाँ सकूँ से बैठ
भूली-बिसरी बातों से क्या तश्कील-ए-रूदाद करें
न ख़ुदा है न नाख़ुदा साथी
कितनी सदियों से अज़्मत-ए-आदम
आख़िरत का ख़याल भी साक़ी
पहले बड़ी रग़बत थी तिरे नाम से मुझ को