न ख़ुदा है न नाख़ुदा साथी
नाव को आप ही चलाना है
या बग़ावत से पार उतरना है
या रऊनत से डूब जाना है
Wasi Shah
Habib Jalib
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Faiz Ahmad Faiz
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साक़ी मुझे शराब की तोहमत नहीं पसंद
गुलों को खिल के मुरझाना पड़ा है
तीरगी के घने हिजाबों में
इजाज़त हो तो मैं तस्दीक़ कर लूँ तेरी ज़ुल्फ़ों से
खुली वो ज़ुल्फ़ तो पहली हसीन रात हुई
ये कैसी सरगोशी-ए-अज़ल साज़-ए-दिल के पर्दे हिला रही है
हम से चुनाँ-चुनीं न करो हम नशे में हैं
आता है कौन दर्द के मारों के शहर में
शाम है और पार नद्दी के
बे-सबब क्यूँ तबाह होता है
लज़्ज़त-ए-ग़म तो बख़्श दी उस ने
ज़िंदगी है इक किराए की ख़ुशी