मुफ़लिसों को अमीर कहते हैं
आब-ए-सादा को शीर कहते हैं
ऐ ख़ुदा! तेरे बा-ख़िरद बंदे
बुज़-दिली को ज़मीर कहते हैं
Habib Jalib
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दिल अभी पूरी तरह टूटा नहीं
भूली-बिसरी बातों से क्या तश्कील-ए-रूदाद करें
इजाज़त हो तो मैं तस्दीक़ कर लूँ तेरी ज़ुल्फ़ों से
अरे मय-गुसारो सवेरे सवेरे
फिर आज 'अदम' शाम से ग़मगीं है तबीअत
वो अहद-ए-जवानी वो ख़राबात का आलम
तौबा का तकल्लुफ़ कौन करे हालात की निय्यत ठीक नहीं
अब भी साज़ों के तार हिलते हैं
बहुत से लोगों को ग़म ने जिला के मार दिया
दफ़्न हैं साग़रों में हंगामे
दरोग़ के इम्तिहाँ-कदे में सदा यही कारोबार होगा
आँखों से तिरी ज़ुल्फ़ का साया नहीं जाता