शाम है और पार नद्दी के
एक नन्हा सा बे-क़रार दिया
यूँ अँधेरे में टिमटिमाता है
जैसे कश्ती के डूबने की सदा
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'अदम' रोज़-ए-अजल जब क़िस्मतें तक़्सीम होती थीं
ये कैसी सरगोशी-ए-अज़ल साज़-ए-दिल के पर्दे हिला रही है
बे-सबब क्यूँ तबाह होता है
ऐ दोस्त मोहब्बत के सदमे तन्हा ही उठाने पड़ते हैं
बोले कोई हँस कर तो छिड़क देते हैं जाँ भी
उन को अहद-ए-शबाब में देखा
तौबा का तकल्लुफ़ कौन करे हालात की निय्यत ठीक नहीं
शायद मुझे निकाल के पछता रहे हों आप
सवाल कर के मैं ख़ुद ही बहुत पशेमाँ हूँ
अफ़्साना चाहते थे वो अफ़्साना बन गया
ज़ुल्मतों को शराब-ख़ाने से
दिल ख़ुश हुआ है मस्जिद-ए-वीराँ को देख कर