बोले कोई हँस कर तो छिड़क देते हैं जाँ भी
लेकिन कोई रूठे तो मनाया नहीं जाता
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तुझ को क्या दूसरों के ऐबों से
ये वो फ़ज़ा है जहाँ फ़र्क़-ए-सुब्ह-ओ-शाम नहीं
तीरगी के घने हिजाबों में
मुद्दआ दूर तक गया लेकिन
हुस्न इक दिलरुबा हुकूमत है
किसी जानिब से कोई मह-जबीं आने ही वाला है
सो रही है गुलों के बिस्तर पर
इजाज़त हो तो मैं तस्दीक़ कर लूँ तेरी ज़ुल्फ़ों से
ज़ुल्फ़-ए-बरहम सँभाल कर चलिए
एक ना-मक़बूल क़ुर्बानी हूँ मैं
शाम है और पार नद्दी के
ख़ुदा ने गढ़ तो दिया आलम-ए-वजूद मगर