ये वो फ़ज़ा है जहाँ फ़र्क़-ए-सुब्ह-ओ-शाम नहीं
कि गर्दिशों में यहाँ ज़िंदगी का जाम नहीं
दयार-ए-पाक में मत पढ़ कलाम-ए-रूह-अफ़ज़ा
कि मक़बरों में ख़तीबों का कोई काम नहीं
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तड़प कर मैं ने तौबा तोड़ डाली
दिल को दिल से काम रहेगा
ज़ौक़-ए-परवाज़ अगर रहे ग़ालिब
कौन है जिस ने मय नहीं चक्खी
मोहतात ओ होशियार तो बे-इंतिहा हूँ मैं
इतना तो दोस्ती का सिला दीजिए मुझे
सूरत के आइने में दिल-ए-पाएमाल देख
पीर-ए-मुग़ाँ से हम को कोई बैर तो नहीं
मतलब मुआ'मलात का कुछ पा गया हूँ मैं
मैं मय-कदे की राह से हो कर निकल गया
तकलीफ़ मिट गई मगर एहसास रह गया
हँस हँस के जाम जाम को छलका के पी गया