तकलीफ़ मिट गई मगर एहसास रह गया
ख़ुश हूँ कि कुछ न कुछ तो मिरे पास रह गया
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दिल डूब न जाएँ प्यासों के तकलीफ़ ज़रा फ़रमा देना
ज़ौक़-ए-परवाज़ अगर रहे ग़ालिब
फ़क़ीर किस दर्जा शादमाँ थे हुज़ूर को कुछ तो याद होगा
शौक़िया कोई नहीं होता ग़लत
खुली वो ज़ुल्फ़ तो पहली हसीन रात हुई
साक़ी ज़रा निगाह मिला कर तो देखना
दिल है बड़ी ख़ुशी से इसे पाएमाल कर
कश्ती चला रहा है मगर किस अदा के साथ
किसी हसीं से लिपटना अशद ज़रूरी है
कहते हैं उम्र-ए-रफ़्ता कभी लौटती नहीं
ख़ू-ए-लैल-ओ-नहार देखी है