मैं मय-कदे की राह से हो कर निकल गया
वर्ना सफ़र हयात का काफ़ी तवील था
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मैं रास्ते का बोझ हूँ मेरा न कर ख़याल
दिल अभी पूरी तरह टूटा नहीं
और अरमान इक निकल जाता
जिन से इंसाँ को पहुँचती है हमेशा तकलीफ़
दरोग़ के इम्तिहाँ-कदे में सदा यही कारोबार होगा
हाथ से खो न बैठना उस को
जा रहा था हरम को मैं लेकिन
सब को पहुँचा के उन की मंज़िल पर
भूली-बिसरी बातों से क्या तश्कील-ए-रूदाद करें
गुलों को खिल के मुरझाना पड़ा है
मिरा इख़्लास भी इक वज्ह-ए-दिल-आज़ारी है
अगरचे रोज़-ए-अज़ल भी यही अँधेरा था