मैं रास्ते का बोझ हूँ मेरा न कर ख़याल
तू ज़िंदगी की लहर है लहरें उठा के चल
लाज़िम है मय-कदे की शरीअत का एहतिराम
ऐ दौर-ए-रोज़गार ज़रा लड़खड़ा के चल
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बे-जुम्बिश-ए-अब्रू तो नहीं काम चलेगा
तौबा का तकल्लुफ़ कौन करे हालात की निय्यत ठीक नहीं
चलते चलते तमाम रस्तों से
ये कैसी सरगोशी-ए-अज़ल साज़-ए-दिल के पर्दे हिला रही है
मोहतात ओ होशियार तो बे-इंतिहा हूँ मैं
कितनी बे-साख़्ता ख़ता हूँ मैं
ज़बान-ए-होश से ये कुफ़्र सरज़द हो नहीं सकता
मुफ़लिसों को अमीर कहते हैं
मायूस हो गई है दुआ भी जबीन भी
बढ़ के तूफ़ान को आग़ोश में ले ले अपनी
जो अक्सर बार-वर होने से पहले टूट जाते थे
मैं बद-नसीब हूँ मुझ को न दे ख़ुशी इतनी