चलते चलते तमाम रस्तों से
मस्त ओ मसरूर आ गए हैं हम
अब जबीं से नक़ाब उलट दीजे
शहर से दूर आ गए हैं हम
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मैं मय-कदे की राह से हो कर निकल गया
बहुत से लोगों को ग़म ने जिला के मार दिया
ज़िंदगी ज़ोर है रवानी का
दिल की हस्ती बिखर गई होती
बारिश शराब-ए-अर्श है ये सोच कर 'अदम'
गोरियों कालियों ने मार दिया
जब तिरे नैन मुस्कुराते हैं
वो सूरज इतना नज़दीक आ रहा है
बे-जुम्बिश-ए-अब्रू तो नहीं काम चलेगा
ख़ैरात सिर्फ़ इतनी मिली है हयात से
दफ़्न हैं साग़रों में हंगामे
कितनी बे-साख़्ता ख़ता हूँ मैं