बहर-ए-आलाम बे-किनारा है
ज़ीस्त की नाव बे-सहारा है
रात अँधेरी है और मता-ए-उम्मीद
एक टूटा हुआ सितारा है
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जिन को मल्लाह छोड़ जाते हैं
दफ़्न हैं साग़रों में हंगामे
जुम्बिश-ए-काकुल-ए-महबूब से दिन ढलता है
मतलब मुआ'मलात का कुछ पा गया हूँ मैं
साहिल पे इक थके हुए जोगी की बंसरी
कौन अंगड़ाई ले रहा है 'अदम'
खुली वो ज़ुल्फ़ तो पहली हसीन रात हुई
पहले बड़ी रग़बत थी तिरे नाम से मुझ को
शिकन न डाल जबीं पर शराब देते हुए
बाज़ औक़ात किसी और के मिलने से 'अदम'
तड़प कर मैं ने तौबा तोड़ डाली