जिन को मल्लाह छोड़ जाते हैं
उन सफ़ीनों को कौन खेता है
पूछती है ये क़िस्मत-ए-मज़दूर
या ख़ुदा रिज़्क़ कौन देता है
Wasi Shah
Habib Jalib
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मुफ़लिसों को अमीर कहते हैं
तड़प कर मैं ने तौबा तोड़ डाली
लज़्ज़त-ए-ग़म तो बख़्श दी उस ने
लोग कहते हैं कि तुम से ही मोहब्बत है मुझे
मैं बद-नसीब हूँ मुझ को न दे ख़ुशी इतनी
मशहूर इक सवाल किया था करीम ने
अब मिरी हालत-ए-ग़मनाक पे कुढ़ना कैसा
जी चाहता है आज 'अदम' उन को छेड़िए
बहर-ए-आलाम बे-किनारा है
सो भी जा ऐ दिल-ए-मजरूह बहुत रात गई
देख कर दिल-कशी ज़माने की
सवाल कर के मैं ख़ुद ही बहुत पशेमाँ हूँ