मशहूर इक सवाल किया था करीम ने
मुझ से वहाँ भी आप की तारीफ़ हो गई
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मैं उम्र भर जवाब नहीं दे सका 'अदम'
दरोग़ के इम्तिहाँ-कदे में सदा यही कारोबार होगा
ज़ुल्फ़-ए-बरहम सँभाल कर चलिए
हर दुश्मन-ए-वफ़ा मुझे महबूब हो गया
जाम उठा और फ़ज़ा को रक़्साँ कर
उन को अहद-ए-शबाब में देखा
झाड़ कर गर्द-ए-ग़म-ए-हस्ती को उड़ जाऊँगा मैं
बे-सबब क्यूँ तबाह होता है
ऐ ग़म-ए-ज़िंदगी न हो नाराज़
आज फिर रूह में इक बर्क़ सी लहराती है
कश्ती चला रहा है मगर किस अदा के साथ
न ख़ुदा है न नाख़ुदा साथी