ऐ ग़म-ए-ज़िंदगी न हो नाराज़
मुझ को आदत है मुस्कुराने की
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हाथ से खो न बैठना उस को
नाख़ुदा किस लिए परेशाँ है
रूह को एक आह का हक़ है
साक़ी मुझे शराब की तोहमत नहीं पसंद
अब भी साज़ों के तार हिलते हैं
और अरमान इक निकल जाता
बहुत से लोगों को ग़म ने जिला के मार दिया
मौत का सर्द हाथ भी साक़ी
ऐ साक़ी-ए-मह-वश ग़म-ए-दौराँ नहीं उठता
न ख़ुदा है न नाख़ुदा साथी
ज़िंदगी इक फ़रेब-ए-पैहम है
हर दिल-फ़रेब चीज़ नज़र का ग़ुबार है