रूह को एक आह का हक़ है
आँख को इक निगाह का हक़ है
एक दिल मैं भी ले के आया हूँ
मुझ को भी इक गुनाह का हक़ है
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आँखों से पिलाते रहो साग़र में न डालो
मय-कदा है यहाँ सकूँ से बैठ
जेब ख़ाली है 'अदम' मय क़र्ज़ पर मिलती नहीं
वही शय मक़सद-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र महसूस होती है
थोड़ी सी अक़्ल लाए थे हम भी मगर 'अदम'
सब को पहुँचा के उन की मंज़िल पर
पीर-ए-मुग़ाँ से हम को कोई बैर तो नहीं
पहले बड़ी रग़बत थी तिरे नाम से मुझ को
एक रेज़ा तिरे तबस्सुम का
दफ़्न हैं साग़रों में हंगामे
फिर आज 'अदम' शाम से ग़मगीं है तबीअत
ख़ू-ए-लैल-ओ-नहार देखी है