मय-कदा है यहाँ सकूँ से बैठ
कोई आफ़त इधर नहीं आती
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हुस्न इक दिलरुबा हुकूमत है
शब की बेदारियाँ नहीं अच्छी
मिरे दिल की उदास वादी में
जहाँ वो ज़ुल्फ़-ए-बरहम कारगर महसूस होती है
मुझ से चुनाँ-चुनीं न करो मैं नशे मैं हूँ
सब को पहुँचा के उन की मंज़िल पर
सितारों के आगे जो आबादियाँ हैं
इजाज़त हो तो मैं तस्दीक़ कर लूँ तेरी ज़ुल्फ़ों से
ख़ू-ए-लैल-ओ-नहार देखी है
ज़ख़्म दिल के अगर सिए होते
ऐ साक़ी-ए-मह-वश ग़म-ए-दौराँ नहीं उठता
अब दो-आलम से सदा-ए-साज़ आती है मुझे