मैं और उस ग़ुंचा-दहन की आरज़ू
आरज़ू की सादगी थी मैं न था
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हम से चुनाँ-चुनीं न करो हम नशे में हैं
जब तिरे नैन मुस्कुराते हैं
तकलीफ़ मिट गई मगर एहसास रह गया
गिरते हैं लोग गर्मी-ए-बाज़ार देख कर
मरने वाले तो ख़ैर हैं बेबस
वो बातें तिरी वो फ़साने तिरे
क्या बात है ऐ जान-ए-सुख़न बात किए जा
हसीन नग़्मा-सराओ! बहार के दिन हैं
हँस के बोला करो बुलाया करो
शब की बेदारियाँ नहीं अच्छी
कितनी बे-साख़्ता ख़ता हूँ मैं