हुस्न इक दिलरुबा हुकूमत है
इश्क़ इक क़ुदरती ग़ुलामी है
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जा रहा था हरम को मैं लेकिन
ख़ैरात सिर्फ़ इतनी मिली है हयात से
पीर-ए-मुग़ाँ से हम को कोई बैर तो नहीं
ये कैसी सरगोशी-ए-अज़ल साज़-ए-दिल के पर्दे हिला रही है
दिल अभी पूरी तरह टूटा नहीं
बे-जुम्बिश-ए-अब्रू तो नहीं काम चलेगा
दिन गुज़र जाएँगे सरकार कोई बात नहीं
ऐ मिरा जाम तोड़ने वाले
मुझे तौबा का पूरा अज्र मिलता है उसी साअत
मोहतात ओ होशियार तो बे-इंतिहा हूँ मैं
ज़बाँ पर आप का नाम आ रहा था
मय-कदा था चाँदनी थी मैं न था