जा रहा था हरम को मैं लेकिन
रास्ते में ब-ख़ूबी-ए-तक़दीर
इक मक़ाम ऐसा आ गया जिस ने
डाल दी मेरे पाँव में ज़ंजीर
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मैं बद-नसीब हूँ मुझ को न दे ख़ुशी इतनी
हँस हँस के जाम जाम को छलका के पी गया
जो अक्सर बार-वर होने से पहले टूट जाते थे
जिस वक़्त भी मौज़ूँ सी कोई बात हुई है
दुआएँ दे के जो दुश्नाम लेते रहते हैं
इक हसीं आँख के इशारे पर
एक ना-मक़बूल क़ुर्बानी हूँ मैं
मरने वाले तो ख़ैर हैं बेबस
कुछ कुछ मिरी आँखों का तसर्रुफ़ भी है शामिल
ख़ाली है अभी जाम मैं कुछ सोच रहा हूँ
मय-कदा था चाँदनी थी मैं न था
हश्र तक भी अगर सदाएँ दें