जाम उठा और फ़ज़ा को रक़्साँ कर
ख़ुद-ब-ख़ुद कोई रुत नहीं फिरती
वक़्त की तंग-दिल सुराही से
मय की इक बूँद भी नहीं गिरती
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हर दुश्मन-ए-वफ़ा मुझे महबूब हो गया
पर लगा कर उड़ेगा नाम तिरा
ऐ साक़ी-ए-मह-वश ग़म-ए-दौराँ नहीं उठता
आँखों से तिरी ज़ुल्फ़ का साया नहीं जाता
रक़्स करता हूँ जाम पीता हूँ
हम से चुनाँ-चुनीं न करो हम नशे में हैं
सो के जब वो निगार उठता है
और अरमान इक निकल जाता
जो भी तेरे फ़क़ीर होते हैं
तुझ को क्या दूसरों के ऐबों से
दिल अभी पूरी तरह टूटा नहीं
मौत का सर्द हाथ भी साक़ी