साहिल पे इक थके हुए जोगी की बंसरी
तल्क़ीन कर रही है किनारा है ज़िंदगी
तूफ़ान में सफ़ीना-ए-हस्ती को छोड़ कर
मल्लाह गा रहा है कि दरिया है ज़िंदगी
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किसी जानिब से कोई मह-जबीं आने ही वाला है
तकलीफ़ मिट गई मगर एहसास रह गया
जो भी तेरे फ़क़ीर होते हैं
ख़ुदा ने गढ़ तो दिया आलम-ए-वजूद मगर
अब मिरी हालत-ए-ग़मनाक पे कुढ़ना कैसा
भूले से कभी ले जो कोई नाम हमारा
कितनी बे-साख़्ता ख़ता हूँ मैं
इतना तो दोस्ती का सिला दीजिए मुझे
सिर्फ़ इक क़दम उठा था ग़लत राह-ए-शौक़ में
कुछ कुछ मिरी आँखों का तसर्रुफ़ भी है शामिल
वस्ल की शब है और सीने में
बढ़ के तूफ़ान को आग़ोश में ले ले अपनी