ख़ुदा ने गढ़ तो दिया आलम-ए-वजूद मगर
सजावटों की बिना औरतों की ज़ात हुई
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मुश्किल ये आ पड़ी है कि गर्दिश में जाम है
दिल ख़ुश हुआ है मस्जिद-ए-वीराँ को देख कर
गुलों को खिल के मुरझाना पड़ा है
आप इक ज़हमत-ए-नज़र तो करें
आज फिर रूह में इक बर्क़ सी लहराती है
झाड़ कर गर्द-ए-ग़म-ए-हस्ती को उड़ जाऊँगा मैं
हाथ से खो न बैठना उस को
गुल्सितानों में घूम लेता हूँ
हर परी-वश को ख़ुदा तस्लीम कर लेता हूँ मैं
बढ़ के तूफ़ान को आग़ोश में ले ले अपनी
अब दो-आलम से सदा-ए-साज़ आती है मुझे
ख़ुश हूँ कि ज़िंदगी ने कोई काम कर दिया