कौन अंगड़ाई ले रहा है 'अदम'
दो जहाँ लड़खड़ाए जाते हैं
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मय-ख़ाना-ए-हस्ती में अक्सर हम अपना ठिकाना भूल गए
हुस्न इक दिलरुबा हुकूमत है
एक ना-मक़बूल क़ुर्बानी हूँ मैं
जुनूँ अब मंज़िलें तय कर रहा है
बे-जुम्बिश-ए-अब्रू तो नहीं काम चलेगा
वो जो तेरे फ़क़ीर होते हैं
ऐ साक़ी-ए-मह-वश ग़म-ए-दौराँ नहीं उठता
मुश्किल ये आ पड़ी है कि गर्दिश में जाम है
दुआएँ दे के जो दुश्नाम लेते रहते हैं
ज़बान-ए-होश से ये कुफ़्र सरज़द हो नहीं सकता
साक़ी शराब ला कि तबीअ'त उदास है
हाथ से खो न बैठना उस को