शिकन न डाल जबीं पर शराब देते हुए
ये मुस्कुराती हुई चीज़ मुस्कुरा के पिला
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जाम उठा और फ़ज़ा को रक़्साँ कर
दिल को दिल से काम रहेगा
वही शय मक़सद-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र महसूस होती है
किसी हसीं से लिपटना अशद ज़रूरी है
उन को अहद-ए-शबाब में देखा
आप इक ज़हमत-ए-नज़र तो करें
जिस से छुपना चाहता हूँ मैं 'अदम'
एक रेज़ा तिरे तबस्सुम का
बे-जुम्बिश-ए-अब्रू तो नहीं काम चलेगा
पीर-ए-मुग़ाँ से हम को कोई बैर तो नहीं
शाम है और पार नद्दी के
वो अहद-ए-जवानी वो ख़राबात का आलम