सो रही है गुलों के बिस्तर पर
एक तस्वीर-ए-रंग-ओ-निकहत-ओ-नाज़
जिस के माथे की नर्म लहरों पर
चाँदनी रात पढ़ रही है नमाज़
Allama Iqbal
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ज़ौक़-ए-परवाज़ अगर रहे ग़ालिब
ये कैसी सरगोशी-ए-अज़ल साज़-ए-दिल के पर्दे हिला रही है
मय-कदा था चाँदनी थी मैं न था
शायद मुझे निकाल के पछता रहे हों आप
शिकन न डाल जबीं पर शराब देते हुए
इक हसीं आँख के इशारे पर
चलते चलते तमाम रस्तों से
आज फिर रूह में इक बर्क़ सी लहराती है
एक रेज़ा तिरे तबस्सुम का
देख कर दिल-कशी ज़माने की
थोड़ी सी अक़्ल लाए थे हम भी मगर 'अदम'
हश्र तक भी अगर सदाएँ दें