हद से बढ़ कर हसीन लगते हो
झूटी क़समें ज़रूर खाया करो
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छेड़ो तो उस हसीन को छेड़ो जो यार हो
कश्ती चला रहा है मगर किस अदा के साथ
लज़्ज़त-ए-ग़म तो बख़्श दी उस ने
ज़बान-ए-होश से ये कुफ़्र सरज़द हो नहीं सकता
शौक़िया कोई नहीं होता ग़लत
तुम्हारे हुस्न को मेरी नज़र लगी है ज़रूर
तीरगी के घने हिजाबों में
बढ़ के तूफ़ान को आग़ोश में ले ले अपनी
चलते चलते तमाम रस्तों से
हम और लोग हैं हम से बहुत ग़ुरूर न कर