कितनी सदियों से अज़्मत-ए-आदम
इज्ज़-ए-फ़ितरत पे मुस्कुराती है
जब मशिय्यत की कोई पेश न जाए
मौत का फ़ैसला सुनाती है
Gulzar
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जा रहा था हरम को मैं लेकिन
हर दिल-फ़रेब चीज़ नज़र का ग़ुबार है
साहिल पे इक थके हुए जोगी की बंसरी
ज़ौक़-ए-परवाज़ अगर रहे ग़ालिब
जाम उठा और फ़ज़ा को रक़्साँ कर
ये रोज़-मर्रा के कुछ वाक़िआत-ए-शादी-ओ-ग़म
ये क्या कि तुम ने जफ़ा से भी हाथ खींच लिया
दिन गुज़र जाएँगे सरकार कोई बात नहीं
गिरते हैं लोग गर्मी-ए-बाज़ार देख कर
उरूस-ए-सुब्ह ने ली है मचल के अंगड़ाई
फ़क़ीर किस दर्जा शादमाँ थे हुज़ूर को कुछ तो याद होगा
अब दो-आलम से सदा-ए-साज़ आती है मुझे