ये क्या कि तुम ने जफ़ा से भी हाथ खींच लिया
मिरी वफ़ाओं का कुछ तो सिला दिया होता
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सो भी जा ऐ दिल-ए-मजरूह बहुत रात गई
जो भी तेरे फ़क़ीर होते हैं
जिन को दौलत हक़ीर लगती है
आँख का ए'तिबार क्या करते
हम ने हसरतों के दाग़ आँसुओं से धो लिए
ज़िंदगी है कि इक हसीन सज़ा
तुम्हारे हुस्न को मेरी नज़र लगी है ज़रूर
शायद मुझे निकाल के पछता रहे हों आप
ज़िंदगी इक फ़रेब-ए-पैहम है
झाड़ कर गर्द-ए-ग़म-ए-हस्ती को उड़ जाऊँगा मैं
वो अहद-ए-जवानी वो ख़राबात का आलम
हर परी-वश को ख़ुदा तस्लीम कर लेता हूँ मैं