जिन को दौलत हक़ीर लगती है
उफ़ वो कितने अमीर होते हैं
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बे-जुम्बिश-ए-अब्रू तो नहीं काम चलेगा
न ख़ुदा है न नाख़ुदा साथी
मय-कदा था चाँदनी थी मैं न था
तौबा का तकल्लुफ़ कौन करे हालात की निय्यत ठीक नहीं
हवा सनके ख़ारों की बड़ी तकलीफ़ होती है
कौन है जिस ने मय नहीं चक्खी
साहिल पे इक थके हुए जोगी की बंसरी
ऐ मिरा जाम तोड़ने वाले
माह-ओ-अंजुम के सर्द होंटों पर
ये वो फ़ज़ा है जहाँ फ़र्क़-ए-सुब्ह-ओ-शाम नहीं
ज़बान-ए-होश से ये कुफ़्र सरज़द हो नहीं सकता
साक़ी ज़रा निगाह मिला कर तो देखना