अपने वजूद से परे अब
कोई भी रास्ता नहीं है
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वादा-ए-वस्ल है लज़्ज़त-ए-इंतिज़ार उठा
तुम तो ऐ ख़ुशबू हवाओ उस से मिल कर आ गईं
उस की जाम-ए-जम आँखें शीशा-ए-बदन मेरा
मैं तुझ को जागती आँखों से छू सकूँ न कभी
ख़ुश-शनासी का सिला कर्ब का सहरा हूँ मैं
इतना यक़ीन रख कि गुमाँ बाक़ी रहे
क़दम क़दम पे नया इम्तिहाँ है मेरे लिए
हसीन ख़्वाब न दे अब यक़ीन-ए-सादा दे
आओ आज हम दोनों अपना अपना घर चुन लें
अपने होने का इक इक पल तजरबा करते रहे
अभी गुनाह का मौसम है आ शबाब में आ