जो मह ओ साल गुज़ारे हैं बिछड़ कर हम ने
वो मह ओ साल अगर साथ गुज़ारे होते
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रख़्त-ए-सफ़र यूँही तो न बेकार ले चलो
बस कोई ऐसी कमी सारे सफ़र में रह गई
सदाएँ एक सी यकसानियत में डूब जाती हैं
राहत-ए-जाँ से तो ये दिल का वबाल अच्छा है
याद कर के और भी तकलीफ़ होती थी 'अदीम'
ग़म के हर इक रंग से मुझ को शनासा कर गया
फ़ासले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था
जब बयाँ करोगे तुम हम बयाँ में निकलेंगे
बिछड़ के तुझ से न देखा गया किसी का मिलाप
कोई पत्थर कोई गुहर क्यूँ है
वो कि ख़ुशबू की तरह फैला था मेरे चार-सू
परिंदा जानिब-ए-दाना हमेशा उड़ के आता है