कटी हुई है ज़मीं कोह से समुंदर तक
मिला है घाव ये दरिया को रास्ता दे कर
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तेरे लिए चले थे हम तेरे लिए ठहर गए
जो मह ओ साल गुज़ारे हैं बिछड़ कर हम ने
हुआ है जो सदा उस को नसीबों का लिखा समझा
इक खिलौना टूट जाएगा नया मिल जाएगा
ग़म के हर इक रंग से मुझ को शनासा कर गया
कोई पत्थर कोई गुहर क्यूँ है
मिरे हमराह गरचे दूर तक लोगों की रौनक़ है
रख़्त-ए-सफ़र यूँही तो न बेकार ले चलो
सर-ए-सहरा मुसाफ़िर को सितारा याद रहता है
ऐसा भी नहीं उस से मिला दे कोई आ कर
याद कर के और भी तकलीफ़ होती थी 'अदीम'
किसी झूटी वफ़ा से दिल को बहलाना नहीं आता