तेरी बातें ही सुनाने आए
दोस्त भी दिल ही दुखाने आए
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ज़िंदगी से यही गिला है मुझे
तू ख़ुदा है न मिरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
ये मैं भी क्या हूँ उसे भूल कर उसी का रहा
रात क्या सोए कि बाक़ी उम्र की नींद उड़ गई
मुहासरा
तअ'ना-ए-नश्शा न दो सब को कि कुछ सोख़्ता-जाँ
रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
ऐसा है कि सब ख़्वाब मुसलसल नहीं होते
अब तिरा ज़िक्र भी शायद ही ग़ज़ल में आए
इस क़दर मुसलसल थीं शिद्दतें जुदाई की
हर कोई तुर्रा-ए-पेचाक पहन कर निकला
ये अब जो आग बना शहर शहर फैला है