वो वक़्त आ गया है कि साहिल को छोड़ कर
गहरे समुंदरों में उतर जाना चाहिए
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रात भर हँसते हुए तारों ने
अगरचे ज़ोर हवाओं ने डाल रक्खा है
न सह सका जब मसाफ़तों के अज़ाब सारे
अब तक दिल-ए-ख़ुश-फ़हम को तुझ से हैं उमीदें
रोग ऐसे भी ग़म-ए-यार से लग जाते हैं
उम्र भर कौन निभाता है तअल्लुक़ इतना
मेरी ख़ातिर न सही अपनी अना की ख़ातिर
क़ुर्बत भी नहीं दिल से उतर भी नहीं जाता
बंदगी हम ने छोड़ दी है 'फ़राज़'
यूँही मर मर के जिएँ वक़्त गुज़ारे जाएँ
तख़्लीक़
मुंतज़िर कब से तहय्युर है तिरी तक़रीर का