याद आई है तो फिर टूट के याद आई है
कोई गुज़री हुई मंज़िल कोई भूली हुई दोस्त
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हर एक बात न क्यूँ ज़हर सी हमारी लगे
ऐ मेरे सारे लोगो
ग़नीम से भी अदावत में हद नहीं माँगी
सवाल
यूँ तो पहले भी हुए उस से कई बार जुदा
साक़ी ये ख़मोशी भी तो कुछ ग़ौर-तलब है
मुस्तक़िल महरूमियों पर भी तो दिल माना नहीं
हर आश्ना में कहाँ ख़ू-ए-मेहरमाना वो
तू सामने है तो फिर क्यूँ यक़ीं नहीं आता
रात के पिछले पहर रोने के आदी रोए
मैं रात टूट के रोया तो चैन से सोया
अब उसे लोग समझते हैं गिरफ़्तार मिरा