ये अब जो आग बना शहर शहर फैला है
यही धुआँ मिरे दीवार ओ दर से निकला था
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करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे
हर कोई दिल की हथेली पे है सहरा रक्खे
ग़ुरूर-ए-जाँ को मिरे यार बेच देते हैं
गुमाँ यही है कि दिल ख़ुद उधर को जाता है
जब भी दिल खोल के रोए होंगे
पयाम आए हैं उस यार-ए-बेवफ़ा के मुझे
रोग ऐसे भी ग़म-ए-यार से लग जाते हैं
किस को बिकना था मगर ख़ुश हैं कि इस हीले से
हवा में नश्शा ही नश्शा फ़ज़ा में रंग ही रंग
ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
ऐसा है कि सब ख़्वाब मुसलसल नहीं होते
वो जिस घमंड से बिछड़ा गिला तो इस का है