वो जिस घमंड से बिछड़ा गिला तो इस का है
कि सारी बात मोहब्बत में रख-रखाव की थी
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कौन ताक़ों पे रहा कौन सर-ए-राहगुज़र
ऐसी तारीकियाँ आँखों में बसी हैं कि 'फ़राज़'
मुस्तक़िल महरूमियों पर भी तो दिल माना नहीं
जो ग़ज़ल आज तिरे हिज्र में लिक्खी है वो कल
क़ासिदा हम फ़क़ीर लोगों का
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
तिरा क़ुर्ब था कि फ़िराक़ था वही तेरी जल्वागरी रही
न शब ओ रोज़ ही बदले हैं न हाल अच्छा है
अब शौक़ से कि जाँ से गुज़र जाना चाहिए
याद आई है तो फिर टूट के याद आई है
वापसी
आज इक और बरस बीत गया उस के बग़ैर