तू ने एक उम्र के बाद पूछा है हाल-ए-दिल
वही दर्द-ओ-ग़म वही हसरतें मिरे साथ हैं
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तिरे बग़ैर मसाफ़त का ग़म कहाँ कम है
सारी ख़िल्क़त एक तरफ़ थी और दिवाना एक तरफ़
मेरी रुस्वाई अगर साथ न देती मेरा
ख़्वाहिश-ए-जादा-ए-राहत से निकलता कैसे
अभी सफ़र में कोई मोड़ ही नहीं आया
अब तो हाथों से लकीरें भी मिटी जाती हैं
पहाड़ भाँप रहा था मिरे इरादे को
मिरी निगाह की वुसअत भी इस में शामिल कर
अभी दिल में गूँजती आहटें मिरे साथ हैं
वो जिस का अक्स लहू को जगा दिया करता
पड़े थे हम भी जहाँ रौशनी में बिखरे हुए