ये नुक्ता मैं ने सीखा बुल-हसन से
कि जाँ मरती नहीं मर्ग-ए-बदन से
चमक सूरज में क्या बाक़ी रहेगी
अगर बे-ज़ार हो अपनी किरन से
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गोरिस्तान-ए-शाही
ख़ुदी के ज़ोर से दुनिया पे छा जा
तुलू-ए-इस्लाम
मिरी निगाह में वो रिंद ही नहीं साक़ी
कमाल-ए-जोश-ए-जुनूँ में रहा मैं गर्म-ए-तवाफ़
जिब्रईल ओ इबलीस
अता अस्लाफ़ का जज़्ब-ए-दरूँ कर
न हो तुग़्यान-ए-मुश्ताक़ी तो मैं रहता नहीं बाक़ी
उसे सुब्ह-ए-अज़ल इंकार की जुरअत हुई क्यूँकर
न आते हमें इस में तकरार क्या थी
वो मेरा रौनक़-ए-महफ़िल कहाँ है
इल्म में भी सुरूर है लेकिन