समुंदर से मिले प्यासे को शबनम
बख़ीली है ये रज़्ज़ाक़ी नहीं है
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फ़क़त निगाह से होता है फ़ैसला दिल का
हज़ारों साल नर्गिस अपनी बे-नूरी पे रोती है
वो हर्फ़-ए-राज़ कि मुझ को सिखा गया है जुनूँ
अक़्ल गो आस्ताँ से दूर नहीं
यही ज़माना-ए-हाज़िर की काएनात है क्या
तिरे सीने में दम है दिल नहीं है
हमदर्दी
तिरे इश्क़ की इंतिहा चाहता हूँ
मेरी नवा-ए-शौक़ से शोर हरीम-ए-ज़ात में
हरम-ए-पाक भी अल्लाह भी क़ुरआन भी एक
तिरी दुनिया जहान-ए-मुर्ग़-ओ-माही
ख़िरद वाक़िफ़ नहीं है नेक-ओ-बद से