सबक़ मिला है ये मेराज-ए-मुस्तफ़ा से मुझे
कि आलम-ए-बशरीयत की ज़द में है गर्दूं
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न पूछो मुझ से लज़्ज़त ख़ानमाँ-बर्बाद रहने की
जलाल-ए-पादशाही हो कि जमहूरी तमाशा हो
रूह-ए-अर्ज़ी आदम का इस्तिक़बाल करती है
यक़ीं मिस्ल-ए-ख़लील आतिश-नशीनी
है राम के वजूद पे हिन्दोस्ताँ को नाज़
तिरी दुनिया जहान-ए-मुर्ग़-ओ-माही
एक आरज़ू
इश्क़ भी हो हिजाब में हुस्न भी हो हिजाब में
गला तो घोंट दिया अहल-ए-मदरसा ने तिरा
जवानों को मिरी आह-ए-सहर दे
मिलेगा मंज़िल-ए-मक़्सूद का उसी को सुराग़
तराना-ए-मिल्ली