रोज़-ए-हिसाब जब मिरा पेश हो दफ़्तर-ए-अमल
आप भी शर्मसार हो मुझ को भी शर्मसार कर
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ख़ुदी की ख़ल्वतों में गुम रहा मैं
कुशादा दस्त-ए-करम जब वो बे-नियाज़ करे
परेशाँ कारोबार-ए-आश्नाई
मजनूँ ने शहर छोड़ा तो सहरा भी छोड़ दे
हरम-ए-पाक भी अल्लाह भी क़ुरआन भी एक
निगह उलझी हुई रंग-ओ-बू में
ख़िरद ने मुझ को अता की नज़र हकीमाना
फ़िर्क़ा-बंदी है कहीं और कहीं ज़ातें हैं
एक नौ-जवान के नाम
वो हर्फ़-ए-राज़ कि मुझ को सिखा गया है जुनूँ
मार्च 1907