निगह उलझी हुई रंग-ओ-बू में
ख़िरद खोई गई है चार-सू में
न छोड़ ऐ दिल फ़ुग़ान-ए-सुब्ह-गाही
अमाँ शायद मिले अल्लाह-हू में
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सितारों से आगे जहाँ और भी हैं
तिरा अंदेशा अफ़्लाकी नहीं है
अरब के सोज़ में साज़-ए-अजम है
मोती समझ के शान-ए-करीमी ने चुन लिए
तारिक़ की दुआ
दुनिया की महफ़िलों से उकता गया हूँ या रब
मस्जिद तो बना दी शब भर में ईमाँ की हरारत वालों ने
उमीद-ए-हूर ने सब कुछ सिखा रक्खा है वाइज़ को
फ़ितरत को ख़िरद के रू-ब-रू कर
माना कि तेरी दीद के क़ाबिल नहीं हूँ मैं
तमीज़-ए-ख़ार-ओ-गुल से आश्कारा
दिल-ए-बेदार फ़ारूक़ी दिल-ए-बेदार कर्रारी