फ़ितरत को ख़िरद के रू-ब-रू कर
तस्ख़ीर-ए-मक़ाम-ए-रंग-ओ-बू कर
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हुआ न ज़ोर से उस के कोई गरेबाँ चाक
एक नौ-जवान के नाम
हैं उक़्दा-कुशा ये ख़ार-ए-सहरा
ऋषी के फ़ाक़ों से टूटा न बरहमन का तिलिस्म
है याद मुझे नुक्ता-ए-सलमान-ए-ख़ुश-आहंग
कमाल-ए-तर्क नहीं आब-ओ-गिल से महजूरी
मकानी हूँ कि आज़ाद-ए-मकाँ हूँ
ख़ुदी के ज़ोर से दुनिया पे छा जा
बातिल से दबने वाले ऐ आसमाँ नहीं हम
ख़िरद के पास ख़बर के सिवा कुछ और नहीं
जवाब-ए-शिकवा
मैं जो सर-ब-सज्दा हुआ कभी तो ज़मीं से आने लगी सदा