हैं उक़्दा-कुशा ये ख़ार-ए-सहरा
कम कर गिला-ए-बरहना-पाई
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दिल-ए-बेदार फ़ारूक़ी दिल-ए-बेदार कर्रारी
ख़ुदी वो बहर है जिस का कोई किनारा नहीं
वही अस्ल-ए-मकान-ओ-ला-मकाँ है
अजब नहीं कि ख़ुदा तक तिरी रसाई हो
निकल जा अक़्ल से आगे कि ये नूर
नशा पिला के गिराना तो सब को आता है
वो मेरा रौनक़-ए-महफ़िल कहाँ है
वतन की फ़िक्र कर नादाँ मुसीबत आने वाली है
हरम-ए-पाक भी अल्लाह भी क़ुरआन भी एक
है राम के वजूद पे हिन्दोस्ताँ को नाज़
तिरे इश्क़ की इंतिहा चाहता हूँ